"वो चांद भी देखो यारों मुहब्बत का मारा लगता है।
ज़ख़्म कितने ही खाए हैं उसने भी जिगर पर।।
ये इन्तहां नहीं मुहब्बत की तो बोलो और क्या है।
कि रौशनी देता है सबको ख़ुद अंधेरे में रह कर।।
ज़ख़्म सह कर भी मुस्कुराना कोई उस चांद से सीखे।
दिखते हैं ज़ख़्म भी दूर से उसके और नूर भी चेहरे पर।।
लगता है कभी कभी कहानी मेरी भी है कुछ उसी की तरह।
कि मैं.......जमीं पर अकेला हूं और वो चांद फलक़ पर।।
©अभिलाष द्विवेदी (अकेला ) एक अनपढ़ शायर
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