मोहब्बतें जगज़ाहिर हो रहीं हैं,
तोबा-तोबा कयामतें हो रहीं हैं ।
चार दिन की चांदनी, और जन,
सरेआम लुटियां डुबो रहीं हैं ।
कट गया शज़र भी उम्मीद का,
सूटकेसों में चिड़ियां सो रहीं हैं ।
हुआ जन्म सृष्टि का, मां जबसे,
लहू का ज़र्रा-ज़र्रा बो रहीं हैं ।
ये कैसी विडंबना है देखो जरा,
प्रेम पाश में अस्मतें खो रहीं हैं ।
चढ़ गया लेप कांच का जबसे
दीमकें घर बनाने को रो रहीं हैं ।
धर्म के नाम पर सरकारें भी,
बहती गंगा में हाथ धो रहीं है ।
मुफ़लिसी की ये अदा भी देखो,
चीटियां भी खिलौने संजो रहीं हैं ।
©Darshan Raj
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हर शब्द बेमिसाल दर्शन भाई 👍 ✌ 🌹 👌 बहुत सुंदर सृजन❣️❣️❣️🙏