"वो ही चाहत वो ही क़िस्मत थी मेरी।
ज़िंदगी की बस वो ही ज़रूरत थी मेरी।।
ये दिल भी..............
धड़कना भूल जाता था उससे दूर हो कर।
वो जैसे दिल में बसी धड़कन थी मेरी।।
लेकिन बदलते वक्त ने ऐसा मंज़र दिखा दिया।
नक़ाब में छुपा असली चेहरा सामने ला दिया।।
चाहत टूटी क़िस्मत रूठी दिल हुआ टुकड़े टुकड़े।
दिल के ज़ख्मों ने उसके बिन जीना सिखा दिया।।
ये सच है उसके बिना ज़िंदगी रास नहीं आती।
दम घुटता सा रहता है और साँस नहीं आती।।
जिए तो जा रहा हूं मगर ज़िन्दा नहीं हूं मैं।
हर आरज़ू मर चुकी बस ये मौत नहीं आती।।
©अभिलाष द्विवेदी (अकेला ) एक अनपढ़ शायर
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