"छोड़ कर गांव की मिट्टी जब से शहर का हो गया हूं।
चकाचौंध में शहर की मैं भी जैसे खो गया हूं।।
सादगी वो गांव की वो अपनापन यहां दिखता नहीं।
लगता है अपनों में भी जैसे गैर सा मैं हो गया हूं।।
गांव में जैसा था मैं शायद अब वैसा ना रहा।
नक़ली सी दुनिया में मैं भी नक़ली सा जैसे हो गया हूं।।
कम होते जा रहे जज़्बात सारे दिल भी पत्थर हो रहा है।
शहर में पत्थर के मैं भी पत्थर का जैसे हो गया हूं।।
खोजता मैं फिर रहा हूं शहर की गलियों में ख़ुद को।
है गली वो कौन सी गुम सा जहां मैं हो गया हूं।।
छोड़ कर.................... खो गया हूं।।
©अभिलाष द्विवेदी (अकेला ) एक अनपढ़ शायर
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