"मालिक मिरे ! दिलों को बे-शर्त तू मिला दे
हैं दूरियाँ अगर तो, तू दूरियाँ मिटा दे
क़ातिल हुई सियासत, सब जानते हैं लेकिन
है कौन जो हुकूमत को, आज आइना दे
महफूज़ सारे बादशाह ,वज़ीर और शहज़ादे हैं
जो बेघर हैं तूफां में, उस प्यादे को अब न सजा दे
हुकूमत तेरे लिए मस्जिद-ओ-शिवाला ज़रूरी है
मालिक! मैं अवाम हूँ मुझे थोड़े निवाले का मजा दे।
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©एक अजनबी
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