White क़दम मिला के ज़माने के साथ चल न सके,
बहुत सँभल के चले, फिर भी हम मगर सँभल न सके।
हर एक मोड़ पे आई ख़लिश की आँधियाँ,
मगर उस दर्द की तासीर से भी बहल न सके।
नीज़-ए-हयात ने हर रोज़ आज़माया हमें,
हम टूटते गए, पर टूट कर भी ढल न सके।
ज़ख़्म-दर-ज़ख़्म थे, पर शिकवा कभी न किया,
वो चाहत थी कि हर हाल में फ़र्ज़ से फिसल न सके।
हमारी रूह का हर नक़्श है इबादत की तरह,
मगर दुनिया के मज़ार पर कभी झुक न सके।
क़लम में अश्क, दिल में मोहब्बत का दर्द था,
मगर अफ़साने को काग़ज़ पे पूरी तरह उतार न सके।
अब ये इश्क़, ये जुनून, और नफ़स का क़ैद,
सब सज़ा है, पर इसके बिना जी भी न सके।
क़दम मिला के ज़माने के साथ चल न सके,
बहुत सँभल के चले, फिर भी हम मगर सँभल न सके।
©Niaz (Harf)
Continue with Social Accounts
Facebook Googleor already have account Login Here