कुछ पंक्ति लिखनी चाही है,
आवाज उठानी चाही है,
छिटकी एक चिंगारी को,
आग बनानी चाही है,
जो कांट रहे वृक्षो को ,
उनको राज बतानी चाही है,
फिर से वसुधा को हरियाली की चादर देनी चाही है।2
वह छाया तुमको कड़े धूप से ,
फिर ना कभी बचाएगी,
वह कोयल तुमको मीठे स्वर के,
गान न फिर सुनाएगी,
वह फल तुमको एक स्वाद भरा,
संसार न फिर दे पाएंगे,
जरा सोचो बिन हवाओं के,
हम स्वास कहाँ ले पाएंगे,
वर्षा की रिमझिम बूंदे,
जब तुमको नही सताएगी ,
पर दिनकर की वे किरणे ,
हर लम्हें पर तड़पायेगी,
जब बंजर धरती पे ,
ममता के अन्न न उग पाएंगे,
जरा सोचो ऐसे में ,
हम जीवन कहाँ बिताएंगे ,
एक नासमझी में पृथ्वी का,
संसार बिगड़ भी सकता है,
और कुछ करने से अपना ,
ये संसार संवर भी सकता है,
अपने संग के लोगो को ,
ये राज बतानी चाही है,
वृक्षों के जीवन की वह ,
सौगात बतानी चाही है,
वक़्त रहते वक़्त का ,
जुनून गर समझ गए,
तो फिर वसुधा को हरियाली की चादर देनी चाही है।।।2
©निष्ठा परिहार
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