मिलना भी तेरे मन से, बिछड़ना भी तेरे मन से।
तहे - दिल में बसाने की, तमन्ना भी तेरे मन से।
जहाँ भी, जब भी, जैसे भी, दिखी मौजूदगी मेरी,
वहीं से ही मुसलसल वो, गुजरना भी तेरे मन से।
तुम्हारे खुद के मन से ही थी मेरे मौन की व्याख्या,
यूँ सर-आँखों पे रख कर फिर, उतरना भी तेरे मन से।
कलम-कागज तुम्हारा था वो जिस पर नाम लिक्खी थी,
मिटाने गर चले हो तो, मिटाना भी तेरे मन से।
ऐ जिंदगी! तेरी कहानी क्या लिखे ‘ अर्जुन'
तिरा मुझ में उलझना भी, सुलझना भी तेरे मन से।
अरुण शुक्ल ‘अर्जुन'
प्रयागराज
(पूर्णतः मौलिक एवं स्वरचित)
.
©अरुण शुक्ल ‘अर्जुन'
Continue with Social Accounts
Facebook Googleor already have account Login Here