मुसाफिर हूँ मैं, सफर की कोई मंजिल नहीं,
हर मोड़ पे कोई नई दास्तान बाकी है।
कदम कदम पर मिलते हैं कुछ हमसफर,
मगर इस राह में अकेले चलने का इरादा बाकी है।।
वक्त की चाल ने कितने राज़ छुपा रखे हैं,
हर लम्हे में एक तजुर्बा बाकी है।
बीते वक्त को कभी रोक न सके हम,
मगर हर आने वाले लम्हे से मिलना बाकी है।।
बरसात में हर बूंद में उसका एहसास बहता है,
यादों की बारिश में उसका नाम बाकी है।
भीगी ज़मीं पर वो पाँव के निशाँ छोड़ जाए,
ऐसे मौसम में उसका आना बाकी है।।
खामोशी में भी एक गूंज सी बसी रहती है,
हर सन्नाटे में कोई बात बाकी है।
ये खामोश लब्ज़ कुछ कहने को हैं आतुर,
बस सुनने वाला कोई अजनबी बाकी है।।
©नवनीत ठाकुर
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