नवनीत ठाकुर

नवनीत ठाकुर Lives in Mandi, Himachal Pradesh, India

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White जो बेच आए थे अपने वजूद को ख़ुद, वो अब जमाने को ईमान सिखाते हैं। जो अपने घर की दीवारें संभाल नहीं पाए, किसी की छत के लिए बांस उठाते हैं। जो खुद ही चलते हैं रिश्तों को तोड़कर, वो ही महफ़िल में तालीम सिखाते हैं। जो रोज़ बाँटते थे ज़हर की शीशियाँ, सुना है शाम को मरहम लगाते हैं। वो जिनके हिस्से में बादल कभी नहीं आए, किसी की छत के लिए बारिश बुलाते हैं। जो अपने ख़्वाबों को बेच आए थे बाज़ारों में, सुना है रात को अफ़साने सुनाते हैं। वो जिनको छू न सके आसमान तक कोई, ज़मीन वालों के लिए सीढ़ियां उठाते हैं। जो अपनी बस्तियों को बचा नहीं पाए, वो ही शहर में कानून बनाते हैं। ©नवनीत ठाकुर

#कविता #नवनीत  White  जो बेच आए थे अपने वजूद को ख़ुद, 
वो अब जमाने को ईमान सिखाते हैं। 
जो अपने घर की दीवारें संभाल नहीं पाए, 
किसी की छत के लिए बांस उठाते हैं।
जो खुद ही चलते हैं रिश्तों को तोड़कर, 
वो ही महफ़िल में तालीम सिखाते हैं।
जो रोज़ बाँटते थे ज़हर की शीशियाँ, 
सुना है शाम को मरहम लगाते हैं।
वो जिनके हिस्से में बादल कभी नहीं आए,
 किसी की छत के लिए बारिश बुलाते हैं।
जो अपने ख़्वाबों को बेच आए थे बाज़ारों में,
 सुना है रात को अफ़साने सुनाते हैं।
वो जिनको छू न सके आसमान तक कोई,
 ज़मीन वालों के लिए सीढ़ियां उठाते हैं।
जो अपनी बस्तियों को बचा नहीं पाए,
 वो ही शहर में कानून बनाते हैं।

©नवनीत ठाकुर

White पाँव जो फिसले तो सम्भल जाएंगे, मगर नज़रों से गिरे तो उठ कहाँ पाएंगे। भूलें तो वक़्त भी सुधार देता है अक्सर, मगर इज्ज़त के ज़ख़्म कहाँ भर पाएंगे। ©नवनीत ठाकुर

#नवनीत_ठाकुर #विचार  White पाँव जो फिसले तो सम्भल जाएंगे,
मगर नज़रों से गिरे तो उठ कहाँ पाएंगे।

भूलें तो वक़्त भी सुधार देता है अक्सर,
मगर इज्ज़त के ज़ख़्म कहाँ भर पाएंगे।

©नवनीत ठाकुर

White सामने जो था, हर इल्ज़ाम उसी पर आया, जिसे देखा ही नहीं, वो निर्दोष नज़र आया। सच कहने चला जो, ग़लत कहलाया, ख़ामोश जो रहा, वो समझदार आया। दर्द सहे जिसने, वही ग़ुनहगार ठहरा, जो तमाशाई था, वो होशियार नज़र आया। जो मिट्टी से उठा, वो रुसवा हुआ, महलों में जो था, वो मसीहा करार आया। ©नवनीत ठाकुर

#नवनीत_ठाकुर #विचार  White सामने जो था, हर इल्ज़ाम उसी पर आया,
जिसे देखा ही नहीं, वो निर्दोष नज़र आया।

सच कहने चला जो, ग़लत कहलाया,
ख़ामोश जो रहा, वो समझदार आया।

दर्द सहे जिसने, वही ग़ुनहगार ठहरा,
जो तमाशाई था, वो होशियार नज़र आया।

जो मिट्टी से उठा, वो रुसवा हुआ,
महलों में जो था, वो मसीहा करार आया।

©नवनीत ठाकुर

कौन रोता है किसके लिए ऐ दोस्त, यहां हर चेहरे को बस मुस्कुराना है। लोग पूछेंगे हाल तो हंसकर कहना, हर ज़ख़्म को अब ख़ुद ही सहलाना है। ग़म की चादर ओढ़कर बैठे हैं हम, ज़माने को फिर भी बहलाना है। आंसुओं की कीमत यहां कौन जाने, हर दर्द को हंसी में छुपाना है। जो टूट गए हैं, वो क्या शिकायत करें, अब खुद को ही फिर से बनाना है। बिछड़कर भी कोई याद क्यों आता है, दिल को हर रोज़ ये समझाना है। रौशनी के शहरों में अंधेरा मिला, अपनी परछाईं से भी घबराना है। तन्हाइयों ने अब दोस्ती कर ली, हर शाम खुद को ही अपनाना है। ©नवनीत ठाकुर

#नवनीत_ठाकुर #कविता  कौन रोता है किसके लिए ऐ दोस्त, 
यहां हर चेहरे को बस मुस्कुराना है।

 लोग पूछेंगे हाल तो हंसकर कहना, 
हर ज़ख़्म को अब ख़ुद ही सहलाना है।

 ग़म की चादर ओढ़कर बैठे हैं हम, 
ज़माने को फिर भी बहलाना है।

आंसुओं की कीमत यहां कौन जाने, 
हर दर्द को हंसी में छुपाना है।

जो टूट गए हैं, वो क्या शिकायत करें, 
अब खुद को ही फिर से बनाना है। 

बिछड़कर भी कोई याद क्यों आता है, 
दिल को हर रोज़ ये समझाना है।

रौशनी के शहरों में अंधेरा मिला,
 अपनी परछाईं से भी घबराना है।

तन्हाइयों ने अब दोस्ती कर ली,
 हर शाम खुद को ही अपनाना है।

©नवनीत ठाकुर

White रिश्तों को बातों का लिबास नहीं उढ़ाया करते, उड़ जायेगे, सच् की आंधी सह नहीं सकते । अरे पागल, ये रिश्ते एहसासों से हैं पनपते , बिना शब्दों के भी करीब हैं आते । जो वक़्त की धूप में झुलस जाएँ, वो सायों में भी सुकून नहीं देते। जो दिल की चौखट में ठहर न पाए, ' नवनीत ' वो लफ्ज़ों में भी टिके नहीं बनते। ©नवनीत ठाकुर

#नवनीतठाकुर #कविता  White रिश्तों को बातों का लिबास नहीं उढ़ाया करते,
 उड़ जायेगे, सच् की आंधी सह नहीं सकते । 

अरे पागल, ये रिश्ते एहसासों से हैं पनपते , 
बिना शब्दों के भी करीब हैं आते । 

जो वक़्त की धूप में झुलस जाएँ, 
वो सायों में भी सुकून नहीं देते। 

जो दिल की चौखट में ठहर न पाए,
 ' नवनीत ' वो लफ्ज़ों में भी टिके नहीं बनते।

©नवनीत ठाकुर

मुझे कमजोर समझने की भूल न कर, मैं शांत हूँ, मगर लाचार नहीं। जो सह लिया, वो सब्र था मेरा, पर हर घाव अब बेक़रार नहीं। मेरी खामोशी को मेरी हार न मान, मैं लहर हूँ, मगर किनारा नहीं। जो आज ठहरा हूँ, तो वक़्त की चाल है, पर जब चलूँगा, तो सहारा नहीं। बदले की आग को मत हवा दे, मैं चिंगारी हूँ, पर राख नहीं। जो जल गया, वो खाक हुआ, पर मैं वो हूँ, जो बुझा नहीं। ©नवनीत ठाकुर

#नवनीत_ठाकुर #कविता  मुझे कमजोर समझने की भूल न कर,
मैं शांत हूँ, मगर लाचार नहीं।
जो सह लिया, वो सब्र था मेरा,
पर हर घाव अब बेक़रार नहीं।

मेरी खामोशी को मेरी हार न मान,
मैं लहर हूँ, मगर किनारा नहीं।
जो आज ठहरा हूँ, तो वक़्त की चाल है,
पर जब चलूँगा, तो सहारा नहीं।

बदले की आग को मत हवा दे,
मैं चिंगारी हूँ, पर राख नहीं।
जो जल गया, वो खाक हुआ,
पर मैं वो हूँ, जो बुझा नहीं।

©नवनीत ठाकुर
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