White आजकल दिन बस यूंही कट जाते हैं,
सुबह, दोपहर, शाम और रात इन चार पहर में बंट जाते हैं,
काम में क्या मशगूल हुए, हम सबकुछ ही भूल गए,
कभी सोचते हैं फुरसत से कितने ही पल बेफ़िज़ूल गए,
हर रोज़ चार दिवारी के अंदर बंद घंटों काम करें, सुबह शाम करें,
वक्त नहीं कि अब आराम करें,
ये मुस्कुराते चेहरे कुछ भी कहे, मगर पहले जैसा वक्त सचमुच नहीं रहा,
बचपन क्या गया बचपना भी अब कुछ नहीं रहा,
कल तक दो कदम पर ठोकर खाते थे, अब कहने को अपने पैरों पर खड़े हो गए हैं,
मन करता है पूछूं उस वक्त से हम क्यों इतनी जल्दी बड़े हो गए हैं,
अब जो बड़े हो गए तो जिम्मेदारियों ने घेड़ लिया और नादानियों ने मुंह फेर लिया,
कोई देखे तो जाने की मन में आज भी एक कोना है,
जिसमें वही शरारतें और खेल खिलौना है,
पता नहीं कब वो छोटी-छोटी इच्छाएं बड़ी चाहत बन गई,
ज़िन्दगी जीना नहीं अब उसे काटना हमारी आदत बन गई।
©Rakhie.. "दिल की आवाज़"
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