सांवरे कृष्ण ने सांवरी सांझ में
अपने अधरों पे मुस्का के मुरली धरी
तान ने प्रेम का वायुमंडल गढा
नेह बदरी ने तब प्रेम वर्षा करी
कनखियां कर रहीं कृष्ण की कामना
अखडियों में अलख जग गयी आस की
आज निधिवन के आंगन में धरती गगन
कर रहे हैं प्रतीक्षा महारास की
मन
वंशी की मधुर तान मोहन भोग मिष्ठान
प्रेम के सभी प्रमाण राधे को समर्पित
पूजा पाठ आचमन या हो प्रार्थना भजन
जप तप योग ध्यान राधे को समर्पित
राधे नाम कृष्ण सार देह प्राण संचार
कर्म धर्म गीता ग्यान राधे को समर्पित
आज अष्टमी के पल कहते हैं हो विकल
कृष्ण जन्म ये महान राधे को समर्पित
विपिन चौहान मन
सुब्हो शब ख़ामोश जैसे हाय महशर की तरह
ख़म ज़दा आवाज़ भी है जुल्फ़ ए सर की तरह
हादिसा ना ज़लज़ले की शक्ल गुज़रे इसलिए
एहतियातन दिल से निकले लोग भी डर की तरह
था सराब ओ सहरा का मंज़र बहुत देखा हुआ
ख़ाक ए ग़म के साथ उस के दीद ऐ तर की तरह
इक गरज़ है सिर्फ सज़दे में अकीदत के सिवा
पूजता है बुत को इंसा ख़ुद भी पत्थर की तरह
फिर नई ताबीर को कुर्बान पिछले ख़्वाब से.....
हम शहर की जुस्तजू में गांव के घर की तरह
विपिन चौहान मन
Alone तमाम बज़्म की पाबंदगी के बाद उठा
हमारा जिक्र मुसलसल उसी के बाद उठा
वो जब तलक थी तलब की सुनी नहीं दस्तक
मजीद प्यास का मंज़र नदी के बाद उठा
अजी ये छोड़िए जी कर के क्या गुनाह किया
ये क्या हिसाब सा नेकी बदी के बाद उठा
न तंज़ था न शिकायत न फिक्र थी न मलाल
अजब ही शोर मेरी जिंदगी के बाद उठा
विपिन चौहान मन
Alone तमाम बज़्म की पाबंदगी के बाद उठा
हमारा जिक्र मुसलसल उसी के बाद उठा
वो जब तलक थी तलब की सुनी नहीं दस्तक
मजीद प्यास का मंज़र नदी के बाद उठा
अजी ये छोड़िए जी कर के क्या गुनाह किया
ये क्या हिसाब सा नेकी बदी के बाद उठा
न तंज़ था न शिकायत न फिक्र थी न मलाल
अजब ही शोर मेरी जिंदगी के बाद उठा
विपिन चौहान मन
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