जब उसकी यादों की तलब बढ़ जाती है
मैं सिगरेट पीने लगता हूं।
भूलकर सारे सुखंवर अपने, मैं दुःख को जीने लगता हूं
अगर ये लौ कम नहीं होती सिगरेट से
तो शराब पीने लगता हूं।
शराब का नशा यादों पर हावी हो जाता है
फिर दिल भी कहीं वीरानों में खो जाता है
दिमाग चला जाता है ढूंढने उसे ख्यालों में
और शरीर थक के सो जाता है।
सुबह होती है, फोन उठाता हूं, कोई मैसेज आया होगा
नहीं आता है
रोजमर्रा की जिंदगी में मशगूल होते हुए भी
वो चेहरा आंखों के सामने से नहीं जाता है।
शाम के साथ साथ मैं भी ढलने लगता हूं
शराफ़त से अय्याशी की ओर चलने लगता हूं
वो नहीं मेरे हाथों की लकीरों में
ये कहकर अपने मन को बहलाने लग गया हूं
रात होते ही वही सिगरेट वही शराब
यही प्रकिया बार बार दोहराने लग गया हूं।।
©अरूण सर्वेश
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