"White हर्फ़ तन ढाँचे कुछ एक ग़ज़लों के काँसे
धुँदली सी नज़र और बची दो चार साँसें
यही रंग-ओ-रोगन मेरे दड़बे को जँचा है
न जाने ये जी मेरा कहाँ जा फँसा है
उलझी तनाबे बेरंग जुराबें दिल में बवण्डर
उजड़ा मकाँ हूँ लगे कोई खंडर
मेरे दर पे दस्तक ये ग़म दे रहा है
न जाने ये जी मेरा कहाँ जा फँसा है
हुजरे में तस्बीहें तेरे नाम की हैं
आवाज़ें मगर अब ये किस काम की हैं
लिखने लिखाने की ज़िद कर रहा है
न जाने ये जी मेरा कहाँ जा फँसा है
अकेले में ख़ुद से यूँ बलवा किया है
लोग कहते मुझको सिज़ोफ़्रेनिया है
ये रंगत उड़ी है ये चेहरा धँसा है
न जाने ये जी मेरा कहाँ जा फँसा है
©गौरव आनन्द श्रीवास्तव
"