मेरे बिल्कुल पास बैठी थी वह। इतनी कि मैं उसकी आती-जाती सांसों को सुन सकता था। उसकी आँखों में दिखती गंगा को, सागर की तरह देख सकता था।
उसने कहा... "लड़के न... बहुत लापरवाह होते हैं।"
मैं हँस पड़ा। उसने मेरी लापरवाहियाँ देखी थीं, काॅलेज के तीन सालों में...
हवा सर्द हो रही थी। अंधेरा घिरने को था। उसने एक गहरी सांस ली और बोली; "लड़कों की दुनिया और ही होती है, 'सोच'..." मैं फिर से हँस पड़ा। उसे मेरी बातें कभी समझ नहीं आयी थीं। वह कहती गयी। "... उनकी दुनिया में एहसासों का कोई ठौर नहीं होता है। लड़के मोहब्बत नहीं जानते हैं। उनकी दुनिया में भीतर की मोहब्बत मर जाती है।"
मैंने चाहा... हँसना लेकिन ख़ामोशियों ने होंठ सिल दिये। सीने में अजीब-सी टीस उठने लगी। उसने मोबाइल देखा और फिर मुझे। वक्त हो चुका था। वह उठी, मुझसे गले लगी, बोली, "कभी कोलकाता आना तुम। मोहब्बत का शहर है..." और मुस्कुराती हुई उस ओर बढ़ गयी, जिस ओर एक ट्रेन उसके इंतजार में खड़ी थी शायद।
मैं उसे देखता रहा। जब तक कि वह गलियों में गुम न हो गयी। दिल ने कई दफे चाहा कि उसे आवाज़ दूँ पर गला भर आया था। उसने मेरी लापरवाहियाँ देखीं, मेरा गुस्सा देखा, मेरी जिद, मेरे दुख, मेरी हँसी सब कुछ देखा था पर शायद कभी नहीं देखा कि मेरी दुनिया उसके बिना अधूरी थी। फिर उसने ही कहा था कि 'लड़के मोहब्बत नहीं जानते हैं।'
मैंने भी कब उससे मोहब्बत किया था! वैराग्य के शहर में मोहब्बत किसे हो! बस न जाने क्यों भीतर ही भीतर दर्द-सा हो रहा था। कोई ट्रेन उसे कोलकाता, उसके शहर लिए जा रही थी। मेरा बनारस, मेरा पहलू में रात भर कोई माझी गीत गाता रहा। मन था कि ट्रेन की पटरियों के साथ कोलकाता चले जा रहा था... ❤
'सोच'
©मलंग
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