एक रिश्ता गहरा था दोस्ती का ,
दरारें उसमें आ गई।
खुदगर्जी के रंग में रंगी,
जरूरत पड़ी तो बतला गई।
हम तकलीफ़ में गुजरे,
वो दूर से सहला गई ।
हाल न पूछा हमे बेहाल देखकर,
जरुरते ख़ुद की बता गई।
हम निभाते रहे दोस्ती समझकर,
वो अकेले रहना सीखा गई।
बाते दिल पर बोझ बनी रहीं,
दोस्ती अपनी जिमेदारी संभला गई।
हम सुनते रहे सबकुछ भुलाकर,
वो इस भोली सूरत को बहला गई।
यकीं नहीं रहा किसी रिश्ते पर,
खुद को हर रिश्ते से बड़ा बना गई।
ढूंढती हूं आज भी हर जगह,
पता नहीं अब वो दोस्ती कहां गई।😔
©आधुनिक कवयित्री
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