कभी ऊँची उड़ती उड़ान की पहचान था मैं,
विकसित होकर चल पड़ी चाल का ग़ुमान था मैं,
सभ्यता भी आगे पीछे विकसित होती गयी,
उसके भी पदचिन्हों का कभी छोटा सा एहसान था मैं,
तुम भी यहाँ तक अकेले काफ़ी कदम चल आए,
तुम्हारे सफ़र की खुशी की कभी मुस्कान था मैं,
सदियों से सदियाँ कुछ यूँ गुज़रती आयीं हैं,
इन सबके कीर्तिमानों का वर्तमान था मैं,
मुझे मेरी उल्फत इतनी प्यारी है कसम से,
सब बिगड़े झमेलों का एक ऐसा अनूठा सम्मान था मैं,
मुद्दतें हुयीं वक़्त यूँ ही गुज़रता गया बेवजह,
सारे बेगैरत इरादों में सबसे बड़ा स्वाभिमान था मैं,
सब हसरतें समय जैसे आगे बढ़ जाती हैं,
उन सब उम्मीदों का अनकहा ऊँचा मचान था मैं,
अब तो आरज़ू है कुछ ऐसा करने की जिससे लगे,
था भी नहीं जैसे कहीं फिर भी सब में विद्यमान था मैं ।
©Rangmanch Bharat
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