"ग़ज़ल"
गुलाब की खुशबू सा था इश्क़ तेरा,
हर साँस में घुलता रहा इश्क़ तेरा।
खुशनुमा खिला खिला चेहरा फीका था,
वो चेहरा न रहा, जो चेहरा था तेरा।
हालात ने चुरा ली वो रंगत मेरी,
भटकता हैं मन राहत-ए-इश्क़ मेरा
कभी शाख़ पर था गुल-ए-आरज़ू,
मगर अब बिखरता है सपना मेरा।
वो कांटों की मानिंद चुभता रहा,
जो पहले था राहत का रस्ता मेरा।
बग़ीचे में सब फूल हंसते रहे,
उदासी में डूबा था क़िस्सा मेरा।
गुलाब डे पर फिर ये अरमान हैं तात्या,
वो समझे कभी भी तो सदक़ा मेरा।
– संतोष तात्या
शोधार्थी
©tatya luciferin
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