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New हिमालय के आँगन में कविता का सारांश Status, Photo, Video

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Unsplash दुकाँ तो मिल गई, घर से मगर है छिन गया आँगन उजड़ वीरां हुए हैं सब, नहीं अब मन कोई उपवन कि किसके साथ होना था व किसके साथ होते हैं― कहीं पर तन,कहीं पर मन,यही जीवन-यही जीवन ©Ghumnam Gautam

#कविता #ghumnamgautam #आँगन #उपवन #leafbook  Unsplash दुकाँ तो मिल गई, घर से मगर है छिन गया आँगन
उजड़ वीरां हुए हैं सब, नहीं अब मन कोई उपवन
कि किसके साथ होना था व किसके साथ होते हैं―
कहीं पर तन,कहीं पर मन,यही जीवन-यही जीवन

©Ghumnam Gautam

White उलझन वाले छंदो मे उलझ कर कविता मेरी थक कर हाफने लगी है लगता है अब एक नई कविता मन के केनवास पर कहीं जन्म न लें रहीं हो ©Parasram Arora

 White उलझन वाले छंदो 
मे उलझ कर 
कविता मेरी थक
 कर हाफने लगी है

लगता है  अब एक
 नई कविता 
मन के केनवास पर 
कहीं जन्म न लें रहीं हो

©Parasram Arora

i एक नूई कविता का प्रजनन

13 Love

White बड़ते अन्धकार मे एक रोशनी तक दिखाई नहि देती सुनसान सी रात मे किसी कि आवाज सुनाई नही देती सपने ही सपने है यहां पर हर कीसी के किसी के पंखो की उढ़ान तक सुनाई नहि देती..!! ©HARSHIT369

#कविता #good_night  White बड़ते अन्धकार मे एक रोशनी तक दिखाई नहि देती
सुनसान सी रात मे किसी कि आवाज सुनाई नही देती
सपने ही सपने है यहां पर हर कीसी के
किसी के पंखो की उढ़ान तक सुनाई नहि देती..!!

©HARSHIT369

#good_night घने अंधकार में कविता

18 Love

#कविता

बारिश पर कविता हिंदी कविता कविता कोश प्रेम कविता कविता

117 View

जमीन पर आधिपत्य इंसान का, पशुओं को आसपास से दूर भगाए। हर जीव पर उसने डाला है बंधन, ये कैसी है जिद्द, ये किसका अधिकार है।। जहां पेड़ों की छांव थी कभी, अब ऊँची इमारतें वहाँ बसी। मिट्टी की जड़ों में जीवन दबा दिया, ये कैसी रचना का निर्माण है।। नदियों की धाराएं मोड़ दीं उसने, पर्वतों को काटा, जला कर जंगलों को कर दिया साफ है। प्रकृति रह गई अब दोहन की वस्तु मात्र, बस खुद की चाहत का संसार है। क्या सच में यही मानव का आविष्कार है? फैक्ट्रियों से उठता धुएं का गुबार है, सांसें घुटती दूसरे की, इसकी अब किसे परवाह है। बस खुद की उन्नति में सब कुर्बान है, उर्वरक और कीटनाशक से किया धरती पर कैसा अत्याचार है। हरियाली से दूर अब सबका घर-आँगन परिवार है, किसी से नहीं अब रह गया कोई सरोकार है, इंसान के मन पर छाया ये कैसा अंधकार है।। हरियाली छूटी, जीवन रूठा, सुख की खोज में सब कुछ छूटा। जो संतुलन से भरी थी कभी, बेजान सी प्रकृति पर किया कैसा पलटवार है।। बारूद के ढेर पर खड़ी है दुनिया, विकसित हथियारों का लगा बहुत बड़ा अंबार है। हो रहा ताकत का विस्तार है,खरीदने में लगी है होड़ यहां, ये कैसा सपना, कैसा ये कारोबार है? ये किसका विचार है, ये कैसा विचार है? क्या यही मानवता का सच्चा आकार है? ©नवनीत ठाकुर

#प्रकृति #कविता  जमीन पर आधिपत्य इंसान का,
पशुओं को आसपास से दूर भगाए।
हर जीव पर उसने डाला है बंधन,
ये कैसी है जिद्द, ये किसका  अधिकार है।।

जहां पेड़ों की छांव थी कभी,
अब ऊँची इमारतें वहाँ बसी।
मिट्टी की जड़ों में जीवन दबा दिया,
ये कैसी रचना का निर्माण है।।

नदियों की धाराएं मोड़ दीं उसने,
पर्वतों को काटा, जला कर जंगलों को कर दिया साफ है।
प्रकृति रह गई अब दोहन की वस्तु मात्र,
बस खुद की चाहत का संसार है।
क्या सच में यही मानव का आविष्कार है?

फैक्ट्रियों से उठता धुएं का गुबार है,
सांसें घुटती दूसरे की, इसकी अब किसे परवाह है।
बस खुद की उन्नति में सब कुर्बान है,
उर्वरक और कीटनाशक से किया धरती पर कैसा अत्याचार है।
 हरियाली से दूर अब सबका घर-आँगन परिवार है,
किसी से नहीं अब रह गया कोई सरोकार है,
इंसान के मन पर छाया ये कैसा अंधकार है।।

हरियाली छूटी, जीवन रूठा,
सुख की खोज में सब कुछ छूटा।
जो संतुलन से भरी थी कभी,
बेजान सी प्रकृति पर किया कैसा पलटवार है।।
बारूद के ढेर पर खड़ी है दुनिया, 
विकसित हथियारों का लगा बहुत बड़ा अंबार है।
हो रहा ताकत का विस्तार है,खरीदने में लगी है होड़ यहां, 
ये कैसा सपना, कैसा ये कारोबार है?
ये किसका विचार है, ये कैसा विचार है?
क्या यही मानवता का सच्चा आकार है?

©नवनीत ठाकुर

#प्रकृति का विलाप कविता

13 Love

White जहां अपनों के सामने सच्चाई साबित करने की ज़रूरत पड़े, वहाँ बुरा बन जाना ही बेहतर होता है । ©harshit tyagi

 White जहां अपनों के सामने सच्चाई 
साबित करने की ज़रूरत पड़े,
 वहाँ बुरा बन जाना ही बेहतर होता है ।

©harshit tyagi

आज के समय में कोई किसी का नहीं होता ।

17 Love

Unsplash दुकाँ तो मिल गई, घर से मगर है छिन गया आँगन उजड़ वीरां हुए हैं सब, नहीं अब मन कोई उपवन कि किसके साथ होना था व किसके साथ होते हैं― कहीं पर तन,कहीं पर मन,यही जीवन-यही जीवन ©Ghumnam Gautam

#कविता #ghumnamgautam #आँगन #उपवन #leafbook  Unsplash दुकाँ तो मिल गई, घर से मगर है छिन गया आँगन
उजड़ वीरां हुए हैं सब, नहीं अब मन कोई उपवन
कि किसके साथ होना था व किसके साथ होते हैं―
कहीं पर तन,कहीं पर मन,यही जीवन-यही जीवन

©Ghumnam Gautam

White उलझन वाले छंदो मे उलझ कर कविता मेरी थक कर हाफने लगी है लगता है अब एक नई कविता मन के केनवास पर कहीं जन्म न लें रहीं हो ©Parasram Arora

 White उलझन वाले छंदो 
मे उलझ कर 
कविता मेरी थक
 कर हाफने लगी है

लगता है  अब एक
 नई कविता 
मन के केनवास पर 
कहीं जन्म न लें रहीं हो

©Parasram Arora

i एक नूई कविता का प्रजनन

13 Love

White बड़ते अन्धकार मे एक रोशनी तक दिखाई नहि देती सुनसान सी रात मे किसी कि आवाज सुनाई नही देती सपने ही सपने है यहां पर हर कीसी के किसी के पंखो की उढ़ान तक सुनाई नहि देती..!! ©HARSHIT369

#कविता #good_night  White बड़ते अन्धकार मे एक रोशनी तक दिखाई नहि देती
सुनसान सी रात मे किसी कि आवाज सुनाई नही देती
सपने ही सपने है यहां पर हर कीसी के
किसी के पंखो की उढ़ान तक सुनाई नहि देती..!!

©HARSHIT369

#good_night घने अंधकार में कविता

18 Love

#कविता

बारिश पर कविता हिंदी कविता कविता कोश प्रेम कविता कविता

117 View

जमीन पर आधिपत्य इंसान का, पशुओं को आसपास से दूर भगाए। हर जीव पर उसने डाला है बंधन, ये कैसी है जिद्द, ये किसका अधिकार है।। जहां पेड़ों की छांव थी कभी, अब ऊँची इमारतें वहाँ बसी। मिट्टी की जड़ों में जीवन दबा दिया, ये कैसी रचना का निर्माण है।। नदियों की धाराएं मोड़ दीं उसने, पर्वतों को काटा, जला कर जंगलों को कर दिया साफ है। प्रकृति रह गई अब दोहन की वस्तु मात्र, बस खुद की चाहत का संसार है। क्या सच में यही मानव का आविष्कार है? फैक्ट्रियों से उठता धुएं का गुबार है, सांसें घुटती दूसरे की, इसकी अब किसे परवाह है। बस खुद की उन्नति में सब कुर्बान है, उर्वरक और कीटनाशक से किया धरती पर कैसा अत्याचार है। हरियाली से दूर अब सबका घर-आँगन परिवार है, किसी से नहीं अब रह गया कोई सरोकार है, इंसान के मन पर छाया ये कैसा अंधकार है।। हरियाली छूटी, जीवन रूठा, सुख की खोज में सब कुछ छूटा। जो संतुलन से भरी थी कभी, बेजान सी प्रकृति पर किया कैसा पलटवार है।। बारूद के ढेर पर खड़ी है दुनिया, विकसित हथियारों का लगा बहुत बड़ा अंबार है। हो रहा ताकत का विस्तार है,खरीदने में लगी है होड़ यहां, ये कैसा सपना, कैसा ये कारोबार है? ये किसका विचार है, ये कैसा विचार है? क्या यही मानवता का सच्चा आकार है? ©नवनीत ठाकुर

#प्रकृति #कविता  जमीन पर आधिपत्य इंसान का,
पशुओं को आसपास से दूर भगाए।
हर जीव पर उसने डाला है बंधन,
ये कैसी है जिद्द, ये किसका  अधिकार है।।

जहां पेड़ों की छांव थी कभी,
अब ऊँची इमारतें वहाँ बसी।
मिट्टी की जड़ों में जीवन दबा दिया,
ये कैसी रचना का निर्माण है।।

नदियों की धाराएं मोड़ दीं उसने,
पर्वतों को काटा, जला कर जंगलों को कर दिया साफ है।
प्रकृति रह गई अब दोहन की वस्तु मात्र,
बस खुद की चाहत का संसार है।
क्या सच में यही मानव का आविष्कार है?

फैक्ट्रियों से उठता धुएं का गुबार है,
सांसें घुटती दूसरे की, इसकी अब किसे परवाह है।
बस खुद की उन्नति में सब कुर्बान है,
उर्वरक और कीटनाशक से किया धरती पर कैसा अत्याचार है।
 हरियाली से दूर अब सबका घर-आँगन परिवार है,
किसी से नहीं अब रह गया कोई सरोकार है,
इंसान के मन पर छाया ये कैसा अंधकार है।।

हरियाली छूटी, जीवन रूठा,
सुख की खोज में सब कुछ छूटा।
जो संतुलन से भरी थी कभी,
बेजान सी प्रकृति पर किया कैसा पलटवार है।।
बारूद के ढेर पर खड़ी है दुनिया, 
विकसित हथियारों का लगा बहुत बड़ा अंबार है।
हो रहा ताकत का विस्तार है,खरीदने में लगी है होड़ यहां, 
ये कैसा सपना, कैसा ये कारोबार है?
ये किसका विचार है, ये कैसा विचार है?
क्या यही मानवता का सच्चा आकार है?

©नवनीत ठाकुर

#प्रकृति का विलाप कविता

13 Love

White जहां अपनों के सामने सच्चाई साबित करने की ज़रूरत पड़े, वहाँ बुरा बन जाना ही बेहतर होता है । ©harshit tyagi

 White जहां अपनों के सामने सच्चाई 
साबित करने की ज़रूरत पड़े,
 वहाँ बुरा बन जाना ही बेहतर होता है ।

©harshit tyagi

आज के समय में कोई किसी का नहीं होता ।

17 Love

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