White जैसे जैसे दीवाली करीब आ रही थी,वैसे वैसे समय पंख लिए पीछे की ओर भाग रहा था।अतीत का गुज़रा हुआ पल चलचित्र की भांति आँखों के आगे घूम रहा था।मैं हर वर्ष अपने पूरे परिवार के साथ खरीदारी करने जाती थी।बाज़ार की भीड़ भाड़ और रौनकों के बीच में भी मेरी नज़रे उन लोगों को ढूढ़ लेती थी,जो हालात के मारे छोटे छोटे बच्चे दिए में रुई लगाने वाली बत्तियां बेचते थे।या दीए बेचते उन महिला पुरुषों पर होती थी जो सड़क में एक तरफ बच्चे को लिटाये सामान बेच रहे होते थे।मुझे नहीं पता पर मैं सब कुछ छोड़कर उन्ही के पास जाती और उनसे ही सामान लेती।सोचती थी कि ये लोग वक़्त के मारे वक़्त काट रहे हैं या वक़्त उन्हें काट रहा है।उनसे सामान लेने के बाद उनकी चेहरे की खुशी मुझे आत्मिक सुख देती थी।अब वक्त तेजी से भाग रहा है।मेरा शहर,दोस्त वो माहौल सब कुछ छूट गया।लेकिन याद आता है वो गुज़रा वक़्त जो वर्तमान में अतीत बन के रह रहा है स्मृतियों में ...........
©Richa Dhar
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