White स्वधा शक्ति की प्राप्ति के अनन्तर मनुष्य के भावों का विकास होता है, और वह अपने आपको स्वाहा करने लगता है, त्याग, आत्मोत्सर्ग करता है और स्वार्थ की जगह परमार्थ-त्याग स्थान ले लेता है। जिससे प्रेम किया जाता है उसके लिए त्याग करने की इच्छा बढ़ जाती है। मनुष्य कष्ट उठाने लगता है। तब प्रेम का व्यावहारिक स्वरूप त्याग ही हो जाता है। त्याग, आत्मोत्सर्ग, बलिदान की स्थिति के अनुसार ही प्रेम कर सत्य स्वरूप विकसित होने लगता है। जब मनुष्य अपने आपको पूर्णतया स्वाहा कर देता है तब एक मात्र प्रेम की सत्ता ही सर्वत्र शेष रह जाती है। प्रेम दिव्य तत्व है। इसके परिणाम सदैव दिव्य ही मिलते हैं। किन्तु यह तब जबकि मनुष्य पुरस्कार की कामना से रहित होकर केवल प्रेम के लिए त्याग बलिदान, आत्मोत्सर्ग करता है। प्रेम का पुरस्कार तो स्वतः प्राप्त होता है और वह है आत्मसन्तोष, शान्ति, प्रसन्नता, जीवन में उत्साह आदि। प्रेम तो मनुष्य की चेतना का विकास कर उसे विश्व चेतना में प्रतिष्ठित करता
©sanjay Kumar Mishra
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