आओ हम तुम जाकर बैठें, उस हृदय तरु के आँचल में,
चलें किसी चंचल धारा जैसे, जीवन के इस मरुथल में ।
हिमकर के स्वर्णिम सपनों में, मैं खोया था, थी अमा रात,
तुम आईं बनकर अरूण दीप, तम ही तम था, जीवन तल में ।
ये अंबर था वीरान बहुत, संध्या गहरी होती थी क्षण क्षण में,
ये मेघ चले थे कुछ अकुलाये से, ज्यों नयन नीर हो काजल में ।
सब हुआ मौन, सब गया ठहर अब, जैसे मन हो निर्जन वन में,
अब क्या यथार्थ अब क्या स्वप्न, सबकुछ सिमटा है इस पल में ।
©Rajat Pratap Singh
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