White प्रेम-तत्त्व को ज्ञानियों ने अमृत की संज्ञा दी है। निस्सन्देह प्रेम तीनों प्रकार से अमृत ही है। यह स्वयं अमर होता है। जिसकी आत्मा में यह आविर्भूत होता है, उसे अमर बना देता है। इसकी अनुभूति और इसका रस अमृत के समान अक्षय आनंद देने वाला होता है। प्रेम अमृत अर्थात् अमर होता है। यह तत्त्व न तो कभी मरता है, न नष्ट होता है और न इसमें परिवर्तन का विकार उत्पन्न होता है। एक बार उत्पन्न होकर यह सदा-सर्वदा बना रहता है। संसार की हर वस्तु, अवस्था, विचार, परिस्थितियाँ, विश्वास, धारणाएं, मान्यतायें, प्रथायें यहाँ तक कि मनुष्य और शरीर तक बदल जाते हैं, किन्तु प्रेम अपने पूर्णरूप में सदैव अपरिवर्तनशील रहता है। यही इसकी अमरता है। प्रेम अमृत है, स्वयं अमर है।
©sanjay Kumar Mishra
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