मनोज की कलम से: (गीत)
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इश्क़ की आरज़ू, हुश्न हो रूबरू
दूर रहने की ज़हमत, गवारा नहीं
आपकी महक से, रात गुलशन रहे
हो सवेरा ये हमकों, गवारा नहीं
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इश्क़ की आरज़ू
हुश्न हो रूबरू...
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तेरे अंदाज़ का कुछ नशा यू हुआ
बिन पिये हम नशे में बहकने लगे
सांस थमने लगी नब्ज़ बढ़ने लगी
ये कदम बिन वजह के थिरकने लगे
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हाथ मे हाथ हो, तुम मेरे पास हो
ज़ोर जज़बातों पर अब, हमारा नहीं
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इश्क़ की आरज़ू
हुश्न हो रूबरू...
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घट रहा है ये क्या हमको कुछ न खबर
आग के ताप से दिल दहकने लगे
राख का ढ़ेर फिर से सुलगने लगा
बर्फ से सर्द लम्हें पिघलने लगे
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न कहे कुछ अभी, न सुने कुछ अभी
कहने सुनने में इंट्रस्ट हमारा नही
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इश्क़ की आरज़ू
हुश्न हो रूबरू...
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