उठकर गिरते
गिरकर उठते हुए देखा है
ये ज़िंदगी तेरे कर्मों की रेखा है।
तन्हाई में तन्हा,समझो नही खुद को,
हमने कितनों की किस्मत,
बदलते देखा है।।
मायूस हो जो खत्म कर लेते हैं
ज़िंदगी अपनी।
माँ का आँचल पिता की चाहत
बिखरते देखा है।।
बातों से चोट खाकर,
मुस्कुराते है अक्सर
बहुतों को दर्द छुपाते देखा है।।
देखा है गिट्टियों पर,
सोते इंसानों को चैन से
कुछ को बिस्तर पर
करवटं बदलते देखा है।।
दुनियां में खुश कौन है,सबसे ज़्यादा?
इस सवाल का जवाब
तलाशते मैंने देखा है।।
उठकर गिरते
गिरकर उठते हुए देखा है।।
ये जिंदगी तेरे कर्मों की रेखा है।।
(बालमुकुन्द त्रिपाठी)
©Balmukund Tripathi
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