कहीं पर जग लिए तुम बिन कहीं पर सो लिए तुम बिन !
मैं अपने गीत गज़लो से उसे पैगाम करता हूं .!
उसी की दी हुई दौलत उसी के नाम करता हूं !
हवा का काम है चलना दिए का काम है जलना,
वह अपना काम करती है, मैं अपना काम करता हूं।
किसी के दिल की मायूसी जहां से हो के गुजरी है,
हमारी सारी चालाकी वहीं पर खो के गुजरी है ।
तुम्हारी और मेरी रात में बस फर्क है इतना,
कि तुम्हारी सो के गुजरी है हमारी रो के गुजरी है।
नजर अक्सर शिकायत आज कल करती है दर्पण से ..!
थकन भी छुट्टियां लेने लगी तन से और मन से ,
कहां तक हम संभाले उम्र का हर रोज गिरता घर ।
तुम अपनी याद का मालवा हटाओ दिल के आंगन से ,
कहीं पर जग लिए तुम बिन कहीं पर सो लिए तुम बिन।
भरी महफिल में भी अक्सर अकेले हो लिए तुम बिन ।
जहां हर दिन सिसकना है जहां हर रात गाना है,
हमारी जिंदगी भी एक तवायफ का घराना है ।
खाना तुझे भी खाना है और खाना मुझे भी खाना है
मेरा उपवास है या मुझे कचोरी खाना है ऐसा बहाना बिल्कुल नहीं बनाना है
टिफिन तुझे भी लाना है टिफिन मुझे मिलना है खाना साथ बैठकर ही खाना है।
बहुत मजबूर होकर गीत रोटी के लिखें मैंने
तुम्हारी याद का क्या है उसे तो रोज आना है ।
कोई दीवाना कहता है कोई पागल समझता है मगर धरती की बेचैनी तो बस बादल समझता है।
🙂🙂
©मनोज कुमार
Continue with Social Accounts
Facebook Googleor already have account Login Here