कौन जात हो भाई?
ये सवाल आज भी उठता है,
जवाब में सिर झुका देता है,
दिल में दर्द छुपा रहता है।
"दलित हैं साहब,"
बस इतना कहना होता है,
फिर नज़रों में तौलते लोग,
इंसान को मापना होता है।
हाथों में मेहनत की लकीरें,
पसीने में इज्ज़त के हीरे,
फिर भी पहचान पूछते हैं,
जाति के चश्मे से देखते हैं।
हमारे सपनों का क्या कसूर?
जो उड़ना चाहते थे भरपूर।
पर पंखों पर ठप्पा लगा दिया,
जाति का नाम लिखवा दिया।
साहब, इंसान से इंसान मिलाओ,
दिलों से ये दीवारें हटाओ।
जात न पूछो, काम को देखो,
बराबरी का सच्चा जीवन सीखो।
नदी एक है, धाराएँ कई,
मिट्टी सबकी, राहें नई।
फिर क्यों जाति की जंजीरें हों?
खुद को इंसान के रूप में जीने दो।
©Writer Mamta Ambedkar
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