इतने अल्प समय में भी
मैंने अनगिनत बार प्रेम किया,तुमसे
जब तुम्हारा नाम भी नहीं ज्ञात था
तब भी,परिचित थी मैं
तुम्हारी आत्मा से
सहस्त्रों मनुष्यों से घिरी मैं,अनुभव कर रही थीं तुम्हारी उपस्थिति
जब पूर्णतः अपरिचित थी तुम से तब भी तुम मुझे चिर परिचित ही लगे
भान था मुझे, हम मिलेंगे
हमें कदाचित हर यथा संभव स्थिति में
मिलना ही था
मैं,अब भी अनभिज्ञ हु
जीवन में सभी संघर्षों को
अकेले पराजित करने के पश्चात भी
मुझे तुम्हारी लालसा क्यों हैं
क्यों मेरा अंतस,यू ही खींच जाता हैं
तुम्हारी ओर
मैं ना तो तुम्हारे योग्य हु,ना ही तुम कभी मेरी ओढ़ बढ़ सकने का कोई प्रयास करते दिखे
मेरे शब्दों में भी तुम्हें रुचि नहीं,भाव कैसे थोप दूं
आशुतोष भी विरक्त विनोद करते है
अकेले संभलने का साहस और लड़ने की क्षमता दोनों ही हैं,मुझ में
मैं किंतु किसी छोटे बालक की भांति
बड़ी कातर दृष्टि से देखती हु तुम्हारी ओर
चाहती हु,तुम पर निर्भर होना
आशा होती हैं,तुमसे स्नेह प्राप्त करने की
आधारहीन हैं,पर भावनाओं पर वश कहा होता है
संवेदनशील भावनाए सदा विवश ही करती हैं
संभवतः,स्त्री होना कतई सरल नहीं
मैं तुम्हे कभी कोई कष्ट देना तो नहीं चाहती
मेरी दृष्टि भी तुम तक बढ़ने से डरती है
मैं विरह से बचती हु,अपितु अब तक भी मेरे हिस्से मेरा एकल प्रेम ही हैं
मैं तुम्हारी अस्वीकृति से भयभीत होती हु
वीरता की पराकाष्ठा हु मैं
भय नहीं है मुझे,मै बस तुम्हारे किसी खेद का कारण कभी नहीं बन ना चाहती
मुझ मे लोभ नहीं है
अपितु,तुम्हारे साथ जीवन जीने की लालसा
मुझे जीवन से बांध अवश्य लेती हैं
मैं अपने मौन प्रेम के साथ कोई अन्याय नहीं करना चाहती
मुझे बस ये अभिलाषा रहती हैं
की तुम स्वयं मेरे प्रेम को सम्मान दो
मैं, संभवतः सबसे कठिन और विचित्र मनुष्यो की श्रेणी में आती होंगी शायद
मुझ जैसे लोग या तो अनुचित युग में आ गए
या संभवतः प्रेम का प्राकट्य भौतिकतावादी युग में किस प्रकार किया जाता है
मैं इस से अपरिचित हु
मैं बस ये समझती हु के
तुम्हारी ऊर्जा,तुम्हारी आत्मा भी यदि मेरी आत्मा मेरी ऊर्जा के अभाव में अर्ध अनुभव करती है तो
फिर आशुतोष हमें पूर्ण अवश्य करेंगे
विडम्बना हैं,के मै ये लालसा भी तुम से नहीं पाल सकती
कहा ना मैने,विचित्र मनुष्यों की श्रेणी में आती होंगी शायद...
©ashita pandey बेबाक़
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