गज़ल
अभी आंख खोली ही थी, कि तमाशा खड़ा हो गया,
इतना भी कितना बदनसीब था, जो अलहदा-ए-दिल हो गया।
लहूलुहान करदो सीना ये, कि आतिश निकले नैनों से,
चले तो तुझसे मिलने थे, ना जाने कब अलविदा हो गया।
भीड में कलाम करने की, आदत है जनाब आपको,
इल्म ना की समुंदर में, इक ज़र्रा कैसे गुम हो गया।
फ़रिश्तों अब सोचो मत, यकलख्त इस दुनिया से जुदा करदो,
परमार तेरा अब ईद का चांद होना, ना जाने क्यूँ गुनाह हो गया।।
अलहदा- जुदा, आतिश- आग, कलाम- बातें, इल्म- ज्ञान, ज़र्रा- परमाणु/ कण
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