#तुम्हेंभूलनेकीकोशिश_हरबारयूँहीनाकामहोजातीहै
सहर होती है रोज़ ज़िंदगी की फिर शाम हो जाती है
जीने वाला भी क्या करे, ज़िंदगी यूँही तमाम हो जाती है
सर-ए-शाम होते ही तुम्हारी यादों में डूब जाया करते हैं
तुम्हें भूलने की कोशिश हर बार यूँही नाकाम हो जाती है
दिन गुज़रता है अक्सर ही इधर-उधर की मशग़ूली में
जिसके लहज़े में थोड़ा भी अपना अक्स मिलता है
ऐसा कहाँ ज़माने में अब कोई शख़्स मिलता है
ख़्याल उसका इस क़दर हावी हुआ दिल से हार गया हूँ
ढूँढने पर हर-आदमी उसके ही बर-अक्स मिलता है
मुन्फरिद है वो, मुख़्तलिफ़ इतना अलग ही दिखाई दे
उसे रोज़ कहाँ ख़्वाबों में आने का फिर वक़्त मिलता है
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