जिसके लहज़े में थोड़ा भी अपना अक्स मिलता है
ऐसा कहाँ ज़माने में अब कोई शख़्स मिलता है
ख़्याल उसका इस क़दर हावी हुआ दिल से हार गया हूँ
ढूँढने पर हर-आदमी उसके ही बर-अक्स मिलता है
मुन्फरिद है वो, मुख़्तलिफ़ इतना अलग ही दिखाई दे
उसे रोज़ कहाँ ख़्वाबों में आने का फिर वक़्त मिलता है
बोली में उसके इतनी शग़ुफ़्ताई कि सुनता रहूँ बस
मगर जो भी मिलता है लहज़ा लिए सख़्त मिलता है
शब-ए-फ़िराक़ गुज़ारना मुहाल हो जाता है अक्सर ही
बिन तेरे रात गुज़रे नहीं,ऐसा कोई ना दरख़्त मिलता है
उसको ज़ुल्फ-ए-पेचाँ ऐसी कि मैं उलझ कर रह गया हूँ
निकलें कैसे, यहाँ से निकलने का कहाँ रख़्त मिलता है
©Zulqar-Nain Haider Ali Khan
जिसके लहज़े में थोड़ा भी अपना अक्स मिलता है
ऐसा कहाँ ज़माने में अब कोई शख़्स मिलता है
ख़्याल उसका इस क़दर हावी हुआ दिल से हार गया हूँ
ढूँढने पर हर-आदमी उसके ही बर-अक्स मिलता है
मुन्फरिद है वो, मुख़्तलिफ़ इतना अलग ही दिखाई दे
उसे रोज़ कहाँ ख़्वाबों में आने का फिर वक़्त मिलता है