है उठा कुछ मर्म सा,पिघला हुआ एक दर्द सा
रोते बिलखते नयन भीतर,है सजा एक अर्ज सा
झकझोरती एक आह भीतर,कर प्रणय मन आज मन कर
चुभन है कुछ तोड़ता,दर्द से फिर जोड़ता
है उठा एक द्वंद सा,रोकता मन नम्र सा
है बिदारता रूप को,सँवारता क्यों सतरूप को
हृदय वृथा ये जानता,मन को भी पहचानता
दृग झुका कुछ कर्ज सा,है उठा कुछ मर्म सा
©Pandit Brajendra ( MONU )
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