बाहर कोलाहल, अंदर शांति,
बाहर गतिमान, अंदर स्थिरता,
दिमाग अनुभवी, मन बच्चा।
सीख रहा हूं मैं भी,
ऐसे रहना, जैसे रहते थे आप।
करता हूं आलिंगन आपका,
कभी पेड़ों को स्पर्श करके,
कभी सितारों को देखकर,
कभी कोई आपकी दी हुई,
किताब को पढ़ - कर।
करता हूं आपसे बात,
कभी झरने की कोलाहल सुनकर,
पुराने अखबारों को चुनकर,
और कभी कविता लिखकर।
मिलता हूं आपसे,
कभी मंदिरों में जा कर,
कभी कविता को गा कर,
कभी खुदको सहलाकर।
©Nishchhal Neer
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