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गज़ल
ग़लती से तोड़ बैठा था मैं अपना ईमान,
अब सज्दों में रोता रहा हर एक अरमान।
जिस राह पर चले थे कभी नूर के सहारे,
अब ठोकरें ही मिलती हैं हर इक मुकाम।
आईना देखता हूँ तो डर जाता हूँ ख़ुद से,
किस जुर्म की सज़ा में हुआ ऐसा अंज़ाम।
सज्दों में बिछी अश्कों की यह नर्म चादर,
बयां कर रही है दिल का टूटा हुआ ईमान।
रहमत की बारिशें भी मुझे छू नहीं पाती,
ख़ुद अपने ही हाथों से गिराया है आसमान।
अब ग़मों को दुआओं में रखता है "तात्या"
शायद इसी बहाने मिले जाए रब का वहीं इनाम।
– संतोष तात्या
शोधार्थी
©tatya luciferin
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