आजकल के संदर्भ में
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किसी भी धर्म का पर्याय ईश्वर नहीं हो सकता| किसी भी धर्म के मूल में ईश्वर नहीं होता| बल्कि किसी भी धर्म की आधारशिला सत्य, न्याय, अंहिसा, प्रेम और शांति होती है|किसी भी धर्म विशेष का प्रतीक कोई ईश्वर विशेष नहीं हो सकता| और अगर किसी धर्म विशेष का प्रतीक और प्रचारक कोई ईश्वर विशेष है तब जन्म लेती है कट्टरता|और धर्म विशेष से धर्म अर्थात (सत्य,न्याय,अहिंसा, प्रेम और शांति) निकल जाता है और बच जाता है केवल 'विशेष', विशेष रीति रिवाजों, रस्मों का ताना-बाना| और धर्म, धर्म न हो करके बन जाता है बस प्रक्रिया मात्र| और उस प्रक्रिया में उलझकर या उलझाकर घटित होते हैं या फिर अंजाम दिये जाते हैं सारे तरह के पाखंड|
©Rudra magdhey Abhijeet
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