कभी कभी मनुष्य को अपने आदिम युग को याद करना चाहिए, जब उसके पास नाम मात्र के संसाधन, सेवन हेतु मिट्टी से उपजा अन्न, पशु, बस यही सब थे। आवास रहित वह एक ठिकाने से दूसरे ठिकाने को भटकता रहता था। अपने छोटे से झुंड के साथ जिसे वह परिवार कहता था। अधिकतर परिस्थितियों में वह और उसका यह झुंड इस खानाबदोश यात्रा को पूरा भी नहीं कर पाता था। कभी प्रकृति, कभी बीमारी, कभी भूख या कभी किसी परभक्षी को अपना घुमतु जीवन सौंप आता था। फिर भी झेलने की क्षमता और प्रायोगिक नवीनता के दम पर आज, वह अपनी उस आदिम स्वयं से इतनी दूर आ गया है की उसे लगभग भूल ही गया है। पर जब वह किसी पर्वत के शिखर पर या उसकी वादी में उतर कर आकाश को निहारता है तब उसे अपने उस आदिम स्वयं का बोध होता है। इन पाशणों के बीच तब शायद वह नग्न, शुद्ध, और ईश्वर के निकट महसूस करता है।
©Abhishek 'रैबारि' Gairola
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