ज़ाहिद हैं फिर भी मुझको लुफ़्त परस्त जाने क्यों बत
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 ज़ाहिद हैं फिर भी मुझको लुफ़्त परस्त जाने क्यों बता रखे हैं। शायद इसलिए के दिल ओ दिमाग की तंग फिज़ा में आप बसा रखे हैं।

तो रेत क्यों दूं उंगलियों के ऊबड़ खाबड़ नाख़ूनों को
पेशानी पर नसीब की रेखाएं इनसे ही तो गुदवा रखे हैं। 

बाहर की फ़जा-ए-माहौल का इल्म नहीं है क़ैद में मुझे कतई 
तूफ़ानी रातों में भी दहलीज पर उम्मीद -ए -दिये जला रखे हैं।

लंबा है रास्ता-ए-सेहरा मगर मंजिल-ए-नख़लिस्तान साफ़ है। मृगतृष्णा बोल- बोल कर सीधी राहों पर भी मोड़ बिठा रखे हैं।

दिल दबा है, दिमाग रला है, रूह विकृत और दरदरी हो गई हैं क्या जाने बेचारी ने कितने युगों से करोड़ों जन्म भिड़ा रखे हैं।

©Abhishek 'रैबारि' Gairola

ज़ाहिद हैं फिर भी मुझको लुफ़्त परस्त जाने क्यों बता रखे हैं। शायद इसलिए के दिल ओ दिमाग की तंग फिज़ा में आप बसा रखे हैं। तो रेत क्यों दूं उंगलियों के ऊबड़ खाबड़ नाख़ूनों को पेशानी पर नसीब की रेखाएं इनसे ही तो गुदवा रखे हैं। बाहर की फ़जा-ए-माहौल का इल्म नहीं है क़ैद में मुझे कतई तूफ़ानी रातों में भी दहलीज पर उम्मीद -ए -दिये जला रखे हैं।

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