आया था वो दौर भी जिंदगी में मेरे, जब निकल पड़ी थी मैं अकेली कंधो पर बेटी की जिम्मेदारी का भार लिए, कष्ट भरी थी राहे मेरी , सामने थे कांटे बिछे, बोली ताने लगे थे लोग मारने, पर... बनकर गूंगी बहरी मैने , वो सब थे दरकिनार किए, कभी कभी तो आई मुसीबत ऐसी, कदम मेरे भी डगमगा गए, पर फिर पड़ती जब निगाहे बेटी पर, तो लगता जैसे पांव में थे पहिए लगे, पहुंचाना होगा बेटी को लक्ष्य तक मुझे, ये स्मरण था काफी दिल के जख्म भरने के लिए, यही सोच मैं करती थी मेहनत निरंतर ऐसे , किसी कुम्हार का हूं गधा मैं जैसे, देखते देखते ना केवल दिन रात बीते बल्कि... गुजर गए थे ना जानें साल ये कितने?? पढ़ लिख कर बन गई काबिल बेटी एक दिन , अब उसके थे पीले हाथ मुझको करने। आएगा कब , कौन ?बन राजकुमार लेने कहा से बेटी को घर से मेरे, यही चिंता मुझको दिन रात लगी सताने, फिर एक दिन आया वो राजकुमार भी आखिर, गाजे -बाजे और बाराती संग में, ले गया ब्याह कर मेरी चिरैया, आंगन ही नही दिल भी सूना हो गया था जैसे, अब है दो बच्चों की मां वो गुड़िया मेरी, सब फर्ज मैने अपने पूरे किए, सब फर्ज मैने पूरे किए।
©kamlesh pratap singh
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