सर्द रातों की हवाओं ने सताया इस तरह।
मैं ठिठुरता रह गया बिस्तर कंटीले हो गए॥
बर्फ से कुछ बात करती चल रही थी ये हवाएं,
फिर अचानक सायं से कम्बल के अंदर आ गई।
पांव को कितना सिकोड़ूं पांव बाहर ही रहा,
अवसर मिला ये फेफड़ों से जाने' कब टकरा गई॥
खाँसियां रुकती नहीं सब अंग ढीले हो गए।
कपकपाती ठंड में फैशन हमारा था चरम पर
कान के दरवाजों से ये वायु घुसती ही गई।
सनसनाती घुस चुकी थी कुछ हवाएं इस बदन में
मेरे तन की हड्डियां हर पल अकड़ती ही गई॥
पूस की इस रात सब मंजर रंगीले हो गए।
कर्ण में धारण किए श्रुति यंत्र को घर की तरफ,
ठंड से छुपते छुपाते गीत सुनते जा रहे थे।
पेट में मेरे अचानक दर्द ने आहट दिया,
साथ ही संगीत सारे सुर में सहसा बज उठे थे॥
अंततः चुपके से' अंतर्वस्त्र पीले हो गए॥
©वरुण तिवारी
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