एक किरदार मेरा भी, यूँ खो गया,
हँसता - खेलता इंसान, पता नहीं कब मर गया।
जिनसे दिलकश मोहब्बत -ए -इंतज़ार था,
न जाने, वो मुझे छोड़, यूँ कहाँ चला गया।।
डर लगता है, अब मेरे सामने रखा सीसे को भी,
न जाने, वो मुझे व सामने वाला शक्स को, क्यों
कमजोर कर गया।
तब पता चला, इश्क -के -इंतकाल में,
कोई किसी की परवाह क्यों करता।
जो ख़ुद की जिंदगी में, कभी किसी के आगे झुकाया नहीं अपना सर,
वो एक मेहबूब के छोड़ जाने से, ख़ुद को क्यों
गुलाम कर गया।।
पूछता है, जमाना उससे, तुम्हारी मौत की वजह कौन है,
उसने मुस्कुराया,
और ख़ुद की दिल को गुन्हेगार कह गया।।
poo
©कवि विजय सर जी
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