पराया क्या जाने पीर 'काटली' की
कितनी हरी भरी थी वो धरा 'काटली' की
पैसे के लालच में आज,
साहूकारों ने बेच दी मिट्टी 'काटली' की
निकली थी वो तुम्हारी प्यास बुझाने,
बुझा दी मानस ने राह 'काटली' की
सहस्र जीवों का जीवन थी जो,
इंसानों ने छीन ली सांसे 'काटली' की
अपनों ने काट दी जड़े 'सानिर'
कितनी हरी भरी थी वो धरा 'काटली' की
सिर साँटें 'सानिर', तो भी सस्तो जाण,
जै बच जाए जान 'काटली' की
पराया क्या जाने पीर 'काटली' की
कितनी हरी भरी थी वो धरा 'काटली' की
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©SANIR SINGNORI
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