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मुझ सा ना कोई हैं मलंग,
और ना तुझ सी हैं कोई सयानी।
तुम मत्थम मधुर सी रगिनी,
तेरी चितवन जैसे सुहासिनी,,
तेज मानो भास्कर स्वरूप,
चरित्र है गंगा का पानी।।
सारे कथन मोहे झूठ लागे,
बस मानू सच तेरी जबानी।।
तुम दोहा, तुम शोरठा और तुम कविता,
तुम हो विविधा, तुम से मेरी कहानी।।
मैं काफिर तुम मंजिल हो,
मै दरिया तुम साहिल हो।
मैं नालायक नासमझ सा,
तुम हर एक क्षेत्र मे काबिल हो।।
मैं हर जगह से लुटा हुआ,
तुम हर एक चाल से वाक़िफ़ हो।।
तुम कालि घटा की रात जैसे,
मैं उबासी भरा सवेरा हु।
तुम्हारी अदा पर नही मर्यादा पर दिल हारा हु,
तुम हो न हो मेरी मैं बस तुम्हारा हु।।
©Vijay Sonwane
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