White मैं देखता हूं उसे छुप के,
और वो सर-ऐ-आम
मेरी आंखों में आंखें डाल कहती हैं ,
फर्क उसमें - मुझमें ! ज़मीन - आसमान सा,
फिर क्यों वो मुझ जैसी लगती है !
मैं जो चलूं सीधी राह,
पर उसे उलटी ही नज़र आती हैं
मिल जाए जो अपनी राय कोई ,
हाए ! ऐसी सुबह कहां ही आती है !
फर्क उसमें - मुझे में! दिन और रात का,
फिर क्यों वो मुझ जैसी लगती है !
गहरे समंदर - सा मेरा मन,
वो फैले समंदर का पानी है,
दोनों की एक-भी नहीं !
लेकिन एक-सी ही कहानी है।
आदतें हमारी मिलती नहीं!
और ना लफ्ज़ो में मेल है,
जज़्बातों का मोहताज हूं!
तो उसके लिए ये सब एक खेल है।
बात -बात पे मुझ से चिढ़ जाती है ,
ना जाने फिर भी क्यों वो मुझ जैसी लगती है !
©Riya Mandal
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