कुण्डलिया छंद
विप्रोचित ना एक ही,शील और संस्कार।
दुः बुद्धि दम्भी पतित,दुःगुण के आगार।।
दुःगुण के आगार,स्वयम्भू पंडित नाम धरे।
दुर्व्यसनों से ग्रस्त,त्रस्त सज्जनों को करे।।
ऐसे छद्मों से मनुज,करलो दूरी क्षिप्र।
मानुष ही ये हैं नहीं,दूर की कौड़ी विप्र।।
सांध्यगीत✍🏻
पत्तों के गलने की ऋतु है, फसलों को मारे पाला
शीत पवन आती ठिठुराती, कोहरे ने डेरा डाला,
नहीं नया उल्लास न सरगम,ये कैसा है नववर्ष
अंध-अनुकरण केवल यह,है मानस का अपकर्ष।
सांध्यगीत
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