स्वतंत्र है कविता,
छंदों और अलंकारों से, रस और श्रृंगारों से,
समाज के विषयों के अनुरूप,
एक तरल स्वभाव की भाँति,
मनोवांछित आकार लेने हेतु !
स्वंतत्र है कविता,
अभिव्यक्ति पर लगे बेड़ियों से,
किसी कुप्रथा के विरुद्ध, आवाज़ ऊँची करने और
करारा जवाब देने हेतु, बिना किसी भूमिका या प्रस्तावना के,
मनोवांछित आकार लेने हेतु !
स्वतंत्र है कविता,
किसी शूरवीर के गुणगान हेतु, बिना किसी स्वामित्व व आधिपत्य के,
चाटुकारिता से मुक्त,
किसी सैनिक की अद्भुत शौर्यता पर, मुक्त कंठ से प्रशंसा हेतु,
वीर रस से आच्छादित होकर,
मनोवांछित आकार लेने हेतु !
स्वतंत्र है कविता,
भ्रष्टाचार के कहरों से आहत होकर, कुशासन के मय दानव से टकराने,
रौद्र रूप धारण कर प्रतिकार करने को, तीव्र गर्ज़न और शंखनाद करने को,
कल कल प्रवाह को त्याग कर, सुनामी बन विनाश करने को,
परिस्थितियाँ देख कर,
मनोवांछित आकार लेने हेतु !
स्वतंत्र है कविता,
उन्मुक्त विचरण को, नभ में पक्षी की भाँति !
स्वतंत्र है कविता,
अदम्य विसरण को, कस्तूरी सुगंध की भाँति !
©Nishant Rai
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