"सुरभि" - विजय कुमार सुतेड़ी
सुरभि मन में बस गई||
पाश से मुक्त कर ,
स्नेह सिंधु युक्त कर |
चित्त खंड खंड कर,
मोह तंतु अखंड कर |
छत्र सी परछाई बन,
नीर सी गहराई बन |
लक्ष्य के प्रयास सी,
डूबते की आस सी |
टूटती कड़ी कोई,
उंगलियों में फंस गई |
सुरभि मन में बस गई ||
ज्वार में उठी लहर,
झंझावत मन गया सहर |
अधर कांपते वीणा तार,
इक मन और सौ विचार |
द्वीप सी उदधि के बीच,
ध्रुव सी किसी हृदय को खींच |
मोती जो झांकती सीप से,
फागुन की बयार सी गुजरी करीब से |
लरज कर मौज की जंजीर,
फिर बदन में कस गई |
सुरभि मन में बस गई ||
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