आंखों की नमी कहीं, अश्कों का सैलाब न हों
करता हूँ याद, उनको हिसाब से
इस जूनून के सफर में और कितनी दूर मंजिल
पूछता हूँ रोज मै, अपने ख्वाब से
वक्त तो है थमा सा, क्या करती हैं ये घड़ियाँ
लड़ता हूँ रोज जब, रात के सैलाब से
गर इश्क़ ही हो खुदा, तो कैसा होता है मंजर
पूछ बैठे हम, मीरा के वज्ह-ए- इज़्तिराब से
अब न दिल में कोई गम, न आंखें मेंरी नम
तमन्ना पूरी हुईं हमारी, इंतखा़ब-ए-शराब से
Continue with Social Accounts
Facebook Googleor already have account Login Here