Aadesh Kumar

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#समाज

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#कविता  सहज स्वभाव यही है मेरा , धारा के प्रतिकूल चलूँ मैं ,
धारा के सँग मुर्दों जैसा , बहना मुझे पसन्द नहीं है    

जीवन जले दीप सा हरदम ,खुद चमके समाज चमकाए ,
जागे प्रसुप्त समाज-चेतना, मन का अंधकार भाग जाए ,
यही प्रयास अनवरत करता , दीपक बनकर सदा जलूँ मैं ,
भूसी जैसा सुलग-सुलग कर , दहना मुझे पसन्द नहीं है ---धारा का सँग ,,,,
धैर्यवान -दीर्घायु महीधर , ओले घन-गर्जन सह जाते ,
तूफानों के प्रबल थपेड़े , भी न उन्हें विचलित कर पाते ,
ढहते वृक्ष मलय झोंके से , उनकी कलई क्या खोलूँ मैं ,
वृक्षों जैसा बुजदिल बनकर , ढहना मुझे पसन्द नहीं है ---धारा के सँग ---
ढोंगों-पाखंडों में जीना , अंधी श्रद्धा ढोते रहना ,
भाग्य और भगवान सहारे , माथ ठोंककर रोते रहना ,
सड़ी रूढ़ियाँ -परम्पराएँ, क्यों न तर्क से अब तोलूँ मैं ,
अंधों जैसा पिछलग्गू बन, रहना मुझे पसन्द नहीं है ---धारा के सँग ---
स्वाभिमान- सम्मान सँजोकर , ज़िंदादिल मरकर भी जीते ,
मुर्दादिल शोषण कर्ता का , नित उठकर चरणोदक पीते ,
मरा हुआ सा जीवित रहकर , मुर्दादिल सा क्यों डोलूँ मैं ,
जीवित लाशों जैसा शोषण , सहना मुझे पसन्द नहीं है ---धारा के सँग ---
सच्चाई पर चलना दुर्लभ , सुनना तक दुश्वार लग रहा ,
सत्य कथन विष-घूँट बन गया ,जग को मिथ्याचार ठग रहा ,
चमचों जैसा ढुलमुल  बन , हाँ में हाँ कैसे बोलूँ मैं ,
आम नीम को ,नीम आम को , कहना मुझे पसन्द नहीं है ,
धारा के सँग मुर्दों जैसा , बहाना मुझे पसन्द नहीं है।

©Aadesh Kumar

सहज स्वभाव यही है मेरा , धारा के प्रतिकूल चलूँ मैं , धारा के सँग मुर्दों जैसा , बहना मुझे पसन्द नहीं है जीवन जले दीप सा हरदम ,खुद चमके समाज चमकाए , जागे प्रसुप्त समाज-चेतना, मन का अंधकार भाग जाए , यही प्रयास अनवरत करता , दीपक बनकर सदा जलूँ मैं , भूसी जैसा सुलग-सुलग कर , दहना मुझे पसन्द नहीं है ---धारा का सँग ,,,, धैर्यवान -दीर्घायु महीधर , ओले घन-गर्जन सह जाते , तूफानों के प्रबल थपेड़े , भी न उन्हें विचलित कर पाते , ढहते वृक्ष मलय झोंके से , उनकी कलई क्या खोलूँ मैं , वृक्षों जैसा बुजदिल बनकर , ढहना मुझे पसन्द नहीं है ---धारा के सँग --- ढोंगों-पाखंडों में जीना , अंधी श्रद्धा ढोते रहना , भाग्य और भगवान सहारे , माथ ठोंककर रोते रहना , सड़ी रूढ़ियाँ -परम्पराएँ, क्यों न तर्क से अब तोलूँ मैं , अंधों जैसा पिछलग्गू बन, रहना मुझे पसन्द नहीं है ---धारा के सँग --- स्वाभिमान- सम्मान सँजोकर , ज़िंदादिल मरकर भी जीते , मुर्दादिल शोषण कर्ता का , नित उठकर चरणोदक पीते , मरा हुआ सा जीवित रहकर , मुर्दादिल सा क्यों डोलूँ मैं , जीवित लाशों जैसा शोषण , सहना मुझे पसन्द नहीं है ---धारा के सँग --- सच्चाई पर चलना दुर्लभ , सुनना तक दुश्वार लग रहा , सत्य कथन विष-घूँट बन गया ,जग को मिथ्याचार ठग रहा , चमचों जैसा ढुलमुल बन , हाँ में हाँ कैसे बोलूँ मैं , आम नीम को ,नीम आम को , कहना मुझे पसन्द नहीं है , धारा के सँग मुर्दों जैसा , बहाना मुझे पसन्द नहीं है। ©Aadesh Kumar

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