आवाज़ तेरी ओ आवाज़ अब भी कानो में गूंजती है,
ये दिल उन आवाज़ों को अब भी ढूँढती है,,
मैने कहा था कि सुना दो एक बार फिर अपनी ओ आवाज़,
क्योंकि जहां मैं रहता हूं उधर ऐसे आवाज़ें नही मिलती है।
छोटू ऐसा नाम जब भी होटल पर जाता सुनने को मिलता,
वह चाय, समोसे इधर उधर सबको देता फिरता,
मजबूरिया इंसान को क्या क्या नही करवाती है।
मजबूरी ही से जनाब कुछ ख्वाहिशे अंदर ही मर
जाती हैं।
क्या खता थी हमारी ज़िन्दगी जीना हो गया भारी
मैं तो उन दरिंदो से अनजान थी
लावारिश थी मैं,
न हिन्दू थी न मुसलमान थी
इन दरिंदो के लिये तो हवस का सामान थी
मुझे तो उनमें दिखा था पिता और भाई
पर मुझमे उनको अपनी बेटी नज़र न आई
हे भगवान क्यों बनाई तुमने ये औरत जात
जब बचाना ही नही है रखकर अपना हाथ
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