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**पिता की अकड़**
पिता की वो अकड़, जैसे पत्थर का पहाड़,
हर अरमान को कुचलता, सख्तियों का अंबार।
न सुनते किसी की, न समझते किसी का दर्द,
अपने हुक्म का फरमान, सबपे डालते ज्यों सर्द।
भेदभाव की धुंध में छिपी ममता की डोर,
हर रिश्ते पर भारी उनकी सख्तियों का शोर।
बेटे की हंसी में तलाशते वो गुरूर,
हर बात पे झलकता उनका कठोर शूर।
कभी देखा नहीं, वो मासूम आँखों का हाल,
जिनमें बसता है उनका एक प्यारा ख्याल।
पर अहं की दीवार में घिरे वो रहें,
जिद की जंजीरों में बच्चों के दिलों को दबाए रहें।
काश कि समझ पाते वो भी एक दिन,
पिता का असल अर्थ, ममता का वो ऋण।
छोड़ देते अकड़, खोल देते दिल का द्वार,
तो शायद फिर खिलते रिश्तों के गुलजार।
©अभिषेक योगी (alfaaz_बावरे)
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